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हर-चंद तिरी याद जुनूँ-ख़ेज़ बहुत है - अब्बास ताबिश कविता - Darsaal

हर-चंद तिरी याद जुनूँ-ख़ेज़ बहुत है

हर-चंद तिरी याद जुनूँ-ख़ेज़ बहुत है

मैं जाग रहा हूँ कि हवा तेज़ बहुत है

क्यूँ कर न मिरे तन से छलक जाए ख़मोशी

पैमाना-ए-जाँ ज़ब्त से लबरेज़ बहुत है

क्या कोह-ए-गिराँ ठहरे तिरी राहगुज़र में

ऐ हुस्न तिरी एक ही महमेज़ बहुत है

इक चाँद की कश्ती ही नहीं डूबने वाली

वर्ना वो समुंदर तो बला-ख़ेज़ बहुत है

गुल-दान से लगते ही बिखर जाती है तितली

गोया ये रग-ए-संग भी ख़ूँ-रेज़ बहुत है

पलकों पे कोई फूल नहीं है तो अजब क्या

कहने को तो मिट्टी मिरी ज़रख़ेज़ बहुत है

तुम ख़ुद सा समझ कर न इसे हाथ लगाना

वो ख़ाक का पुतला ही सही तेज़ बहुत है

धरना है कहीं तो ये गिराँ-बारी-ए-ख़ातिर

ज़ानू जो नहीं सर के लिए मेज़ बहुत है

क्या है जो कटोरे के भी पैराक नहीं हम

जीने को तो ये हीला-ए-तबरेज़ बहुत है

'ताबिश' जो गुज़रती ही नहीं शाम की हद से

सोचें तो वहीं रात सहर-ख़ेज़ बहुत है

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