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फ़क़त माल-ओ-ज़र-ए-दीवार-ओ-दर अच्छा नहीं लगता - अब्बास ताबिश कविता - Darsaal

फ़क़त माल-ओ-ज़र-ए-दीवार-ओ-दर अच्छा नहीं लगता

फ़क़त माल-ओ-ज़र-ए-दीवार-ओ-दर अच्छा नहीं लगता

जहाँ बच्चे नहीं होते वो घर अच्छा नहीं लगता

मिरे दुख तक मिरे ख़ूँ और पसीने की कमाई हैं

तुम्हें क्यूँ मेरी मेहनत का समर अच्छा नहीं लगता

शिकस्ता सत्र चाहे रंग-ओ-बू-ए-पैरहन ठहरे

किसी सूरत मुझे इज्ज़-ए-हुनर अच्छा नहीं लगता

मयस्सर हो न जब तक बू-ए-ताज़ा-तर की हमराही

हवा की तरह गलियों से गुज़र अच्छा नहीं लगता

रह-ए-तेशा-तलब तेरी मैं वो दीवार हूँ जिस को

न हो शोरीदगी जिस में वो सर अच्छा नहीं लगता

गली में खेलते बच्चों के हाथों का मैं पत्थर हूँ

मुझे इस सहन का ख़ाली शजर अच्छा नहीं लगता

चमकता हूँ हर इक महताब-रू के रू-ए-रौशन में

मैं सूरज हूँ मुझे शब का सफ़र अच्छा नहीं लगता

जिसे देखें वही फिर देखने की आरज़ू ठहरे

जिसे चाहें वही बार-ए-दिगर अच्छा नहीं लगता

इसी ख़ातिर उसे 'ताबिश' उचकना चाहता हूँ मैं

मुझे तालाब की तह में क़मर अच्छा नहीं लगता

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