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एक क़दम तेग़ पे और एक शरर पर रक्खा - अब्बास ताबिश कविता - Darsaal

एक क़दम तेग़ पे और एक शरर पर रक्खा

एक क़दम तेग़ पे और एक शरर पर रक्खा

मेरी वहशत ने मुझे रक़्स-ए-दिगर पर रक्खा

मेरे मालिक ने तुझे आइना-दारी दे कर

निगराँ तुझ को मिरे हुस्न-ए-नज़र पर रक्खा

ला-तअल्लुक़ नज़र आता था ब-ज़ाहिर लेकिन

शहर को उस ने मिरी ख़ैर-ख़बर पर रक्खा

ज़िंदगी तू ने क़दम मोड़ दिए और तरफ़

और अंदर से मुझे और सफ़र पर रक्खा

अहल-ए-वहशत को मगर कौन बताता जा कर

हो गया नाफ़-ए-ग़ज़ालीं कोई घर पर रक्खा

कोंपलें फूट पड़ीं दस्त-ए-दुआ से मेरे

दम-ए-आमीन जो में दीदा-ए-तर पर रक्खा

ख़त्म होती ही नहीं गिर्या-ओ-ज़ारी उन की

मीर ने हाथ तो हर लफ़्ज़ के सर पर रक्खा

मैं ने इस डर से उसे तोड़ लिया है 'ताबिश'

सूख जाए न कहीं शाख़-ए-शजर पर रक्खा

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