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डूब कर भी न पड़ा फ़र्क़ गिराँ-जानी में - अब्बास ताबिश कविता - Darsaal

डूब कर भी न पड़ा फ़र्क़ गिराँ-जानी में

डूब कर भी न पड़ा फ़र्क़ गिराँ-जानी में

मैं हूँ पत्थर की तरह बहते हुए पानी में

ये मोहब्बत तो बहुत बा'द का क़िस्सा है मियाँ

मैं ने उस हाथ को पकड़ा था परेशानी में

रफ़्तगाँ तुम ने अबस ढोंग रचाया वर्ना

इश्क़ को दख़्ल नहीं मौत की अर्ज़ानी में

ये मोहब्बत भी विलायत की तरह रखती है

हालत-ए-हाल में ये हालत-ए-हैरानी में

इस लिए जल के कभी राख नहीं होता दिल

ये कभी आग में होता है कभी पानी में

इक मोहब्बत ही पे मौक़ूफ़ नहीं है 'ताबिश'

कुछ बड़े फ़ैसले हो जाते हैं नादानी में

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