दी है वहशत तो ये वहशत ही मुसलसल हो जाए
दी है वहशत तो ये वहशत ही मुसलसल हो जाए
रक़्स करते हुए अतराफ़ में जंगल हो जाए
ऐ मिरे दश्त-मिज़ाजो ये मिरी आँखें हैं
इन से रूमाल भी छू जाए तो बादल हो जाए
चलता रहने दो मियाँ सिलसिला दिलदारी का
आशिक़ी दीन नहीं है कि मुकम्मल हो जाए
हालत-ए-हिज्र में जो रक़्स नहीं कर सकता
उस के हक़ में यही बेहतर है कि पागल हो जाए
मेरा दिल भी किसी आसेब-ज़दा घर की तरह
ख़ुद-ब-ख़ुद खुलने लगे ख़ुद ही मुक़फ़्फ़ल हो जाए
डूबती नाव में सब चीख़ रहे हैं 'ताबिश'
और मुझे फ़िक्र ग़ज़ल मेरी मुकम्मल हो जाए
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