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दश्त में प्यास बुझाते हुए मर जाते हैं - अब्बास ताबिश कविता - Darsaal

दश्त में प्यास बुझाते हुए मर जाते हैं

दश्त में प्यास बुझाते हुए मर जाते हैं

हम परिंदे कहीं जाते हुए मर जाते हैं

हम हैं सूखे हुए तालाब पे बैठे हुए हँस

जो तअ'ल्लुक़ को निभाते हुए मर जाते हैं

घर पहुँचता है कोई और हमारे जैसा

हम तिरे शहर से जाते हुए मर जाते हैं

किस तरह लोग चले जाते हैं उठ कर चुप-चाप

हम तो ये ध्यान में लाते हुए मर जाते हैं

उन के भी क़त्ल का इल्ज़ाम हमारे सर है

जो हमें ज़हर पिलाते हुए मर जाते हैं

ये मोहब्बत की कहानी नहीं मरती लेकिन

लोग किरदार निभाते हुए मर जाते हैं

हम हैं वो टूटी हुई कश्तियों वाले 'ताबिश'

जो किनारों को मिलाते हुए मर जाते हैं

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