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बदन के चाक पर ज़र्फ़-ए-नुमू तय्यार करता हूँ - अब्बास ताबिश कविता - Darsaal

बदन के चाक पर ज़र्फ़-ए-नुमू तय्यार करता हूँ

बदन के चाक पर ज़र्फ़-ए-नुमू तय्यार करता हूँ

मैं कूज़ा-गर हूँ और मिट्टी का कारोबार करता हूँ

मिरी ख़ंदक़ में उस के क़ुर्ब की क़िंदील रौशन है

मिरे दुश्मन से कह देना मैं उस से प्यार करता हूँ

कहीं तो रेग-ए-ख़ुफ़्ता की तरह पानी में पड़ रहता

वरक़-गर्दानी-ए-सहरा मैं क्यूँ बे-कार करता हूँ

उठाए फिर रहा हूँ हसरत-ए-ता'मीर की ईंटें

जहाँ साया नहीं होता वहीं दीवार करता हूँ

जहाँ भी शाम-ए-तन जाए मुहाफ़िज़ साँप की सूरत

मैं अपनी रेज़गारी की वहीं अम्बार करता हूँ

उसी को सामने पा कर उसी को भींच कर 'ताबिश'

सुकूत-ए-ना-शनासी को सुख़न-आसार करता हूँ

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