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अजब सौदा-ए-वहशत है दिल-ए-ख़ुद-सर में रहता है - अब्बास ताबिश कविता - Darsaal

अजब सौदा-ए-वहशत है दिल-ए-ख़ुद-सर में रहता है

अजब सौदा-ए-वहशत है दिल-ए-ख़ुद-सर में रहता है

ये कैसी छब का मालिक है ये कैसे घर में रहता है

उसी के दम-क़दम से है जहान-ए-दीद-ओ-नज़्ज़ारा

कहीं आँखों में बस्ता है कहीं मंज़र में रहता है

निहाल-ए-ख़ुश्क में अब तक वो सूखा ज़र्द सा पत्ता

बरहना लगता है लेकिन लिबास-ए-ज़र में रहता है

मिरी आँखों से ले कर तेरे चेहरे तक सितारे हैं

कि जो गर्दिश में आ जाए उसी मेहवर में रहता है

मैं अपने अक्स को रम-ख़ुर्दगी से बाज़ क्या रक्खूँ

ग़ज़ाल-ए-आइना-ख़ाना किसी के डर में रहता है

मुझे तो गोर-ए-गिर्या में सुला देते हैं घर वाले

मगर एहसास-ए-बेदारी मिरे बिस्तर में रहता है

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