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ऐसे तो कोई तर्क सुकूनत नहीं करता - अब्बास ताबिश कविता - Darsaal

ऐसे तो कोई तर्क सुकूनत नहीं करता

ऐसे तो कोई तर्क सुकूनत नहीं करता

हिजरत वही करता है जो बैअ'त नहीं करता

ये लोग मुझे किस लिए दोज़ख़ से डराएँ

मैं आशिक़ी करता हूँ इबादत नहीं करता

हम सिलसिला-दारों के हो क्यूँ जान के दरपय

काफ़िर उसे कहिए जो मोहब्बत नहीं करता

लगता है यहाँ मौत नहीं आनी किसी को

इस शहर में अब कोई वसिय्यत नहीं करता

ये मुझ को बताते हैं ग़ज़ालान-ए-तरह-दार

अच्छा वही रहता है जो वहशत नहीं करता

'ताबिश' का क़यामत से यक़ीं उठ न गया हो

कुछ दिन से वो ज़िक्र-ए-क़द-ओ-क़ामत नहीं करता

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