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अब मोहब्बत न फ़साना न फ़ुसूँ है यूँ है - अब्बास ताबिश कविता - Darsaal

अब मोहब्बत न फ़साना न फ़ुसूँ है यूँ है

अब मोहब्बत न फ़साना न फ़ुसूँ है यूँ है

साहब-ए-दश्त तो कहता था कि यूँ है यूँ है

पस-ए-गिर्या कोई देता है तसल्ली तुझ को

ये जो ऐ दिल तुझे बे-वज्ह सुकूँ है यूँ है

'मीर'-साहिब ही नहीं उस से परे बैठते हैं

जो भी शाइस्ता-ए-आदाब-ए-जुनूँ है यूँ है

ज़िंदगी-भर में कोई शे'र तो ऐसा होता

मैं भी कहता जो मिरा ज़ख़्म-ए-दरूँ है यूँ है

नीस्त में हस्त का एहसास दिलाती हुई आँख

शोर करती है कि है कुन-फ़यकूँ है यूँ है

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