ताबीर को तरसे हुए ख़्वाबों की ज़बाँ हैं
ताबीर को तरसे हुए ख़्वाबों की ज़बाँ हैं
तस्वीर के होंटों पे जो बोसों के निशाँ हैं
आँखों में तर-ओ-ताज़ा हैं जिस अहद के मंज़र
हम लोग उसी अहद-ए-गुज़िश्ता में जवाँ हैं
नीलाम हमारा भी इसी शर्त पे होगा
हम रौनक़-ए-बाज़ार हैं जैसे हैं जहाँ हैं
दिल था कि किसी साअत-ए-पुर-ख़ूँ में हुआ सर्द
आँखें हैं कि अब तक तिरी जानिब निगराँ हैं
दीवार पे लिक्खा है कि अब सुब्ह न होगी
और साया-ए-दीवार में हम रक़्स-कुनाँ हैं
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