गुज़र गया वो ज़माना वो ज़ख़्म भर भी गए
गुज़र गया वो ज़माना वो ज़ख़्म भर भी गए
सफ़र तमाम हुआ और हम-सफ़र भी गए
उसी नज़र के लिए बे-क़रार रहते थे
उसी निगाह की बे-ताबियों से डर भी गए
हमारी राह में साया कहीं नहीं था मगर
किसी शजर ने पुकारा तो हम ठहर भी गए
ये सैल-ए-अश्क है बर्बाद कर के छोड़ेगा
ये घर न पाओगे दरिया अगर उतर भी गए
सहर हुई तो ये उक़्दा भी ताएरों पे खुला
कि आशियाँ ही नहीं अब के बाल-ओ-पर भी गए
बहुत अज़ीज़ थी ये ज़िंदगी मगर हम लोग
कभी कभी तो किसी आरज़ू में मर भी गए
शजर के साथ कोई बर्ग-ए-ज़र्द भी न रहा
हवा चली तो बहारों के नौहागर भी गए
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