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ज़र्फ़ से बढ़ के हो इतना नहीं माँगा जाता - अब्बास दाना कविता - Darsaal

ज़र्फ़ से बढ़ के हो इतना नहीं माँगा जाता

ज़र्फ़ से बढ़ के हो इतना नहीं माँगा जाता

प्यास लगती है तो दरिया नहीं माँगा जाता

चाँद जैसी भी हो बेटी किसी मुफ़्लिसी की तो

ऊँचे घर वालों से रिश्ता नहीं माँगा जाता

दोस्ती कर के हवा से जो जला दें घर को

उन चराग़ों से उजाला नहीं माँगा जाता

अपने कमज़ोर बुज़ुर्गों का सहारा मत लो

सूखे पेड़ों से तो साया नहीं माँगा जाता

पेट भरते हैं जो माँगे हुए टुकड़े खा कर

उन के हाथों से निवाला नहीं माँगा जाता

भीक भी माँगो तो तहज़ीब का कासा ले कर

हाथ फैला के ख़ज़ाना नहीं माँगा जाता

है इबादत के लिए शर्त अक़ीदत 'दाना'

बंदगी के लिए सज्दा नहीं माँगा जाता

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