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वफ़ादारी पे दे दी जान ग़द्दारी नहीं आई - अब्बास दाना कविता - Darsaal

वफ़ादारी पे दे दी जान ग़द्दारी नहीं आई

वफ़ादारी पे दे दी जान ग़द्दारी नहीं आई

हमारे ख़ून में अब तक ये बीमारी नहीं आई

ख़ुदा का शुक्र सोहबत का असर होता नहीं हम पर

अदाकारों में रह कर भी अदाकारी नहीं आई

अमीर-ए-शहर हो कर भी नहीं कोई तिरी इज़्ज़त

तिरे हिस्से में ग़ैरत और ख़ुद्दारी नहीं आई

हमारी दर्स-गाहों की निज़ामत ऐसी बिगड़ी है

किताबें पढ़ के भी बच्चों में हुश्यारी नहीं आई

लगाई आग उस ने शहर में इतनी सफ़ाई से

कि उस के घर पे उड़ के इक भी चिंगारी नहीं आई

अभी से किस लिए बेटे को भेजें नौकरी करने

हमारे दस्त-ओ-पा में इतनी लाचारी नहीं आई

मैं नादानी पे अपनी आज तक हैरान हूँ 'दाना'

कि दुनिया को समझने की समझदारी नहीं आई

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