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कोई सुबूत-ए-जुर्म जगह पर नहीं मिला - अब्बास दाना कविता - Darsaal

कोई सुबूत-ए-जुर्म जगह पर नहीं मिला

कोई सुबूत-ए-जुर्म जगह पर नहीं मिला

टूटे पड़े थे आइने पत्थर नहीं मिला

पत्थर के जैसी बे-हिसी उस का नसीब है

वो क़ौम जिस को कोई पयम्बर नहीं मिला

जब तक वो झूट कहता रहा सर पे ताज था

सच कह दिया तो ताज ही क्या सर नहीं मिला

हम रात-भर जलें भी तुम्हें रौशनी भी दें

हम को चराग़ जैसा मुक़द्दर नहीं मिला

शहर-ए-सितम भी जश्न-ए-अमाँ मत मना अभी

शायद सितमगरों को तिरा घर नहीं मिला

माँ बाप की दुआओं से बढ़ कर जहेज़ में

दुल्हन को और कोई भी ज़ेवर नहीं मिला

'दाना' वो अब भी आता है तन्हाइयों में याद

दुनिया की भीड़ में जो बिछड़ कर नहीं मिला

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