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अक़्ल-ओ-दानिश को ज़माने से छुपा रक्खा है - अब्बास दाना कविता - Darsaal

अक़्ल-ओ-दानिश को ज़माने से छुपा रक्खा है

अक़्ल-ओ-दानिश को ज़माने से छुपा रक्खा है

ख़ुद को दानिस्ता ही दीवाना बना रखा है

घर की वीरानियाँ ले जाए चुरा कर कोई

इसी उम्मीद पे दरवाज़ा खुला रक्खा है

बन गए ऊँचे महल उन की इबादत गाहें

नाम दौलत का जहाँ सब ने ख़ुदा रक्खा है

क़ाबिल-ए-रश्क से वो दुख़्तर-ए-मुफ़्लिस जिस ने

तंग-दस्ती में भी इज़्ज़त को बचा रक्खा है

जिस के महलों में चराग़ों का न था कोई शुमार

उस की तुर्बत पे फ़क़त एक दिया रक्खा है

इस से बढ़ कर तिरी यादों की करूँ क्या ताज़ीम

तेरी यादों में ज़माने को भुला रक्खा है

सुर्ख़-रू हो गईं तन्हाइयाँ मेरी 'दाना'

उस ने काँधे पे मिरे दस्त-ए-हिना रक्खा है

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