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ज़र्फ़ है किस में कि वो सारा जहाँ ले कर चले - आज़िम कोहली कविता - Darsaal

ज़र्फ़ है किस में कि वो सारा जहाँ ले कर चले

ज़र्फ़ है किस में कि वो सारा जहाँ ले कर चले

हम तो दुनिया से फ़क़त इक दर्द-ए-जाँ ले कर चले

आदमी को चाहिए तौफ़ीक़ चलने की फ़क़त

कुछ नहीं तो गुज़रे वक़्तों का धुआँ ले कर चले

जब बहारें बेवफ़ा निकलें तो किस उम्मीद पर

इंतिज़ार-ए-गुल की हसरत बाग़बाँ ले कर चले

कब मुक़द्दर का कहाँ कैसा कोई मंज़र बने

हम हथेली पर लकीरों के मकाँ ले कर चले

रहबरी का कुछ सलीक़ा है न मंज़िल की ख़बर

कौन सी जानिब ये मीर-ए-कारवाँ ले कर चले

देखते हैं ज़िंदगी को अपने ही अंदाज़ से

हम जिधर को चल पड़े इक दास्ताँ ले कर चले

ज़ुल्मतें तारीक शब की दूर करने के लिए

बादलों से हम ऐ 'आज़िम' बिजलियाँ ले कर चले

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