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सुबू उठा मिरे साक़ी कि रात जाती है - आज़िम कोहली कविता - Darsaal

सुबू उठा मिरे साक़ी कि रात जाती है

सुबू उठा मिरे साक़ी कि रात जाती है

नज़र मिला मिरे साक़ी कि रात जाती है

कि तू मनाए मुझे इस लिए मैं रूठा हूँ

मुझे मना मिरे साक़ी कि रात जाती है

है मेरी जान मिरी जाँ तिरे तबस्सुम में

तू मुस्कुरा मिरे साक़ी कि रात जाती है

शब-ए-विसाल की ख़ुशबू फ़ज़ा की रंगीनी

कहीं से ला मिरे साक़ी कि रात जाती है

किसी बहार का नग़्मा कोई सुहानी ग़ज़ल

तू गुनगुना मिरे साक़ी कि रात जाती है

फिर इक फ़रेब में ये शब गुज़र न जाए कहीं

क़सम न खा मिरे साक़ी कि रात जाती है

क़रीब हो के भी 'आज़िम' के तू क़रीब नहीं

पलट के आ मिरे साक़ी कि रात जाती है

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