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सिलसिले सब रुक गए दिल हाथ से जाता रहा - आज़िम कोहली कविता - Darsaal

सिलसिले सब रुक गए दिल हाथ से जाता रहा

सिलसिले सब रुक गए दिल हाथ से जाता रहा

हिज्र की दहलीज़ पर इक दर्द लहराता रहा

क़ल्ब का दामन जुनूँ में भी न छोड़ा अक़्ल ने

धड़कनों की चाप सुन कर मुझ को ख़ौफ़ आता रहा

मसअला उस की अना का था कि शोहरत की तलब

उस का हर एहसान मुझ पर नेकियाँ ढाता रहा

मैं रहा बे-ख़्वाब ख़्वाबों के तिलिस्मी जाल में

वो मिरी नींदें चुरा कर लोरियाँ गाता रहा

सब्र की तकरार थी जोश ओ जुनून-ए-इश्क़ से

ज़िंदगी भर दिल मुझे मैं दिल को समझाता रहा

रोज़ आ कर मेरी खिड़की में मिरे बचपन का चाँद

रख के सर इक नीम की टहनी पे सो जाता रहा

हिज्र के बादल छटे जब धूप चमकी इश्क़ की

वस्ल के आँगन में भँवरा गुल पे मंडलाता रहा

ज़िंदगी बेबाक हो कर तुझ से आगे बढ़ गई

और 'आज़िम' तू लकीरों पर ही इतराता रहा

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