जब कभी तुम मेरी जानिब आओगे
जब कभी तुम मेरी जानिब आओगे
मुझ को अपना मुंतज़िर ही पाओगे
देखना कैसे पिघलते जाओगे
जब मिरी आग़ोश में तुम आओगे
गेसू-ए-पेचाँ में मुझ को बाँध कर
तुम भी अब बच कर कहाँ तक जाओगे
हश्र के दिन की तो छोड़ो हश्र पर
उम्र भर ये ख़ौफ़ क्यूँकर खाओगे
वक़्त 'आज़िम' जा के फिर आता नहीं
वक़्त को वापस कहाँ से लाओगे
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