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इक इश्क़ है कि जिस की गली जा रहा हूँ मैं - आज़िम कोहली कविता - Darsaal

इक इश्क़ है कि जिस की गली जा रहा हूँ मैं

इक इश्क़ है कि जिस की गली जा रहा हूँ मैं

और दिल की धड़कनों से भी घबरा रहा हूँ मैं

कर देगा वो मुआफ़ मिरे हर गुनाह को

ये सोच कर गुनाह किए जा रहा हूँ मैं

छोड़ा कहीं का मुझ को न दुनिया के दर्द ने

फिर भी तिरा करम कि जिए जा रहा हूँ मैं

राह-ए-वफ़ा में मिट गए जब फ़ासले सभी

फिर क्यूँ निगाह-ए-यार से शर्मा रहा हूँ मैं

फिर हो रही हैं प्यार की सब हसरतें जवाँ

फिर दिल उसी की याद से बहला रहा हूँ मैं

इक दिन चुका ही दूँगा ज़माने का भी हिसाब

कुछ बात है जो ज़ब्त किए जा रहा हूँ मैं

उल्फ़त की राह पर तुझे मिल जाएगा ख़ुदा

इस बे-क़रार दिल को ये समझा रहा हूँ मैं

वो शोख़ इक निगाह में सब साफ़ कह गया

मुद्दत से जिस को कहने से कतरा रहा हूँ मैं

'आज़िम' यक़ीं नहीं उसे क्यूँ मेरी बात पर

क्या कम है ये कि उस की क़सम खा रहा हूँ मैं

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