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दूर है मंज़िल तो क्या रस्ता तो है - आज़िम कोहली कविता - Darsaal

दूर है मंज़िल तो क्या रस्ता तो है

दूर है मंज़िल तो क्या रस्ता तो है

इक नज़र उस ने मुझे देखा तो है

चाँद हाथों में नहीं तो क्या हुआ

आसमाँ पर ही सही दिखता तो है

ख़ुश अगर ग़ैरों में है तो ख़ुश रहे

वो कहीं भी हो चलो अच्छा तो है

कुछ नहीं है और तो ग़म ही सही

इस भरी दुनिया में कुछ अपना तो है

आज वो यूँ ही नहीं मुझ से ख़फ़ा

कुछ गिला तो है कोई शिकवा तो है

किया भरोसा उस के वअ'दे का मगर

दिल के ख़ुश रखने को इक वअ'दा तो है

उस ने रक्खा है तकल्लुफ़ का भरम

अब अदावत पर कोई पर्दा तो है

आ रहा है वो भी आख़िर राह पर

सुन के मेरा ज़िक्र कुछ कहता तो है

दिल नहीं 'आज़िम' चलो जाँ ही सही

ख़ैर उस ने मुझ से कुछ माँगा तो है

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