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आ कि चाहत वस्ल की फिर से बड़ी पुर-ज़ोर है - आज़िम कोहली कविता - Darsaal

आ कि चाहत वस्ल की फिर से बड़ी पुर-ज़ोर है

आ कि चाहत वस्ल की फिर से बड़ी पुर-ज़ोर है

आ कि दिल में हसरतों ने फिर मचाया शोर है

आ कि अब तो दूर तक ख़ुशबू की चादर बिछ गई

आ कि रुख़ बाद-ए-सबा का अपने घर की ओर है

आ कि फिर से चाँद पर दिलकश जवानी आ गई

आ कि फिर से आज-कल अंगड़ाइयों का ज़ोर है

आ कि कलियों के चटख़ने का वो मौसम आ गया

आ कि दिल में धड़कनों का इक अनोखा शोर है

आ कि जुगनू कर रहे रातों में तीखी रौशनी

आ कि फिर से रक़्स में काली घटा घनघोर है

आ कि फिर बादल तिरे आने की देते हैं ख़बर

आ कि फिर अब मस्तियों में अपने मन का मोर है

आ कि अब तो दम भी है जैसे लबों तक आ गया

आ कि तेरे हाथ में अब ज़िंदगी की डोर है

आ कि मौसम का असर 'आज़िम' पे अब होने लगा

आ कि ताक़त ज़ब्त की अब हो चली कमज़ोर है

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