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काश मैं तुझ सा बेवफ़ा होता - अातिश इंदौरी कविता - Darsaal

काश मैं तुझ सा बेवफ़ा होता

काश मैं तुझ सा बेवफ़ा होता

फिर मुझे तुझ से क्या गिला होता

इश्क़ होता है क्या पता होता

गर परिंदों से वास्ता होता

बोल के मुझ से गर जुदा होता

मिलने-जुलने का सिलसिला होता

यूँ हो कि घर बनाएँ दीवारें

रात होते ही घर गया होता

बेवफ़ाई का सुर्ख़ रंग भी है

इश्क़ में वर्ना क्या मज़ा होता

ख़ुद पे गर इख़्तियार होता तो

दूर मैं तुझ से जा चुका होता

हिस्से में आता सिर्फ़ अमीरों के

इश्क़ पैसों में गर बिका होता

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