मुख़ालिफ़ों को भी अपना बना लिया तू ने
अजीब तरह का जादू तिरी ज़बान में था
Gulzar
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आप की हस्ती में ही मस्तूर हो जाता हूँ मैं
चारासाज़ों की चारा-साज़ी से
कमाल-ए-हुस्न का जिस से तुम्हें ख़ज़ाना मिला
सितम को उन का करम कहें हम जफ़ा को मेहर-ओ-वफ़ा कहें हम
इब्तिदा बिगड़ी इंतिहा बिगड़ी
जो चाहते हो बदलना मिज़ाज-ए-तूफ़ाँ को
ये मय-ख़ाना है मय-ख़ाना तक़द्दुस उस का लाज़िम है
लाख पर्दों में गो निहाँ हम थे
ज़बाँ पे शिकवा-ए-बे-मेहरी-ए-ख़ुदा क्यूँ है?
गिला मुझ से था या मेरी वफ़ा से
ये सारी बातें हैं दर-हक़ीक़त हमारे अख़्लाक़ के मुनाफ़ी