मुझे भी इक सितमगर के करम से
सितम सहने की आदत हो गई है
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उमीद उन से वफ़ा की तो ख़ैर क्या कीजे
लाख पर्दों में गो निहाँ हम थे
आप की हस्ती में ही मस्तूर हो जाता हूँ मैं
मस्लहत का यही तक़ाज़ा है
मुझे उन से मोहब्बत हो गई है
ज़िंदगी गुज़री मिरी ख़ुश्क शजर की सूरत
ज़बाँ पे शिकवा-ए-बे-मेहरी-ए-ख़ुदा क्यूँ है?
चारासाज़ों की चारा-साज़ी से
दर-हक़ीक़त इत्तिसाल-ए-जिस्म-ओ-जाँ है ज़िंदगी
ये मय-ख़ाना है मय-ख़ाना तक़द्दुस उस का लाज़िम है
ख़मोश बैठे हो क्यूँ साज़-ए-बे-सदा की तरह