मस्लहत का यही तक़ाज़ा है
वो न मानें तो मान जाओ तुम
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ये मय-ख़ाना है मय-ख़ाना तक़द्दुस उस का लाज़िम है
ये सारी बातें हैं दर-हक़ीक़त हमारे अख़्लाक़ के मुनाफ़ी
दर-हक़ीक़त इत्तिसाल-ए-जिस्म-ओ-जाँ है ज़िंदगी
वो मेरे क़ल्ब को छेदेगा कब गुमान में था
आप की हस्ती में ही मस्तूर हो जाता हूँ मैं
चारासाज़ों की चारा-साज़ी से
कमाल-ए-हुस्न का जिस से तुम्हें ख़ज़ाना मिला
मुख़ालिफ़ों को भी अपना बना लिया तू ने
उमीद उन से वफ़ा की तो ख़ैर क्या कीजे
ख़मोश बैठे हो क्यूँ साज़-ए-बे-सदा की तरह
मुझे उन से मोहब्बत हो गई है