जो चाहते हो बदलना मिज़ाज-ए-तूफ़ाँ को
तो नाख़ुदा पे भरोसा करो ख़ुदा की तरह
Gulzar
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Allama Iqbal
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अपने चेहरे से जो ज़ुल्फ़ों को हटाया उस ने
मुख़ालिफ़ों को भी अपना बना लिया तू ने
हर्फ़-ए-शिकवा न लब पे लाओ तुम
मुझे उन से मोहब्बत हो गई है
ख़ूगर-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार था इतना 'आतिश'
ग़म-ओ-अलम भी हैं तुम से ख़ुशी भी तुम से है
आप की हस्ती में ही मस्तूर हो जाता हूँ मैं
ज़बाँ पे शिकवा-ए-बे-मेहरी-ए-ख़ुदा क्यूँ है?
मस्लहत का यही तक़ाज़ा है
ये सारी बातें हैं दर-हक़ीक़त हमारे अख़्लाक़ के मुनाफ़ी
सितम को उन का करम कहें हम जफ़ा को मेहर-ओ-वफ़ा कहें हम