गिला मुझ से था या मेरी वफ़ा से
मिरी महफ़िल से क्यूँ बरहम गए वो
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ये मय-ख़ाना है मय-ख़ाना तक़द्दुस उस का लाज़िम है
आप की हस्ती में ही मस्तूर हो जाता हूँ मैं
तुम्हें तो अपनी जफ़ाओं की ख़ूब दाद मिली
सितम को उन का करम कहें हम जफ़ा को मेहर-ओ-वफ़ा कहें हम
ज़िंदगी गुज़री मिरी ख़ुश्क शजर की सूरत
उमीद उन से वफ़ा की तो ख़ैर क्या कीजे
मुझे भी इक सितमगर के करम से
मुख़ालिफ़ों को भी अपना बना लिया तू ने
ज़बाँ पे शिकवा-ए-बे-मेहरी-ए-ख़ुदा क्यूँ है?
ये सारी बातें हैं दर-हक़ीक़त हमारे अख़्लाक़ के मुनाफ़ी
मुझे उन से मोहब्बत हो गई है