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तुम्हें ज़ेबा नहीं हरगिज़ सिले की आरज़ू रखना - अातिश बहावलपुरी कविता - Darsaal

तुम्हें ज़ेबा नहीं हरगिज़ सिले की आरज़ू रखना

तुम्हें ज़ेबा नहीं हरगिज़ सिले की आरज़ू रखना

तुम्हारा काम है 'आतिश' क़लम की आबरू रखना

अगर दिल में तमन्ना-ए-नशात-ए-रंग-ओ-बू रखना

मआल-ए-ख़ंदा-गुल को भी अपने रू-ब-रू रखना

ये मय-ख़ाना है मय-ख़ाना तक़द्दुस उस का लाज़िम है

यहाँ जो भी क़दम रखना हमेशा बा-वज़ू रखना

कहीं तौक़-ओ-सलासिल हैं कहीं ज़हर-ए-हलाहल है

मुझे हर आज़माइश में इलाही सुर्ख़-रू रखना

ज़माने पर किसे मालूम कैसा बार गुज़रा है

मिरा हक़्क़-ओ-सदाक़त पर मदार-ए-गुफ़्तुगू रखना

न मिल पाए सुराग़-ए-मंज़िल-ए-जानाँ न मिल पाए

हमारा काम है जारी तलाश-ओ-जुस्तुजू रखना

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