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सितम को उन का करम कहें हम जफ़ा को मेहर-ओ-वफ़ा कहें हम - अातिश बहावलपुरी कविता - Darsaal

सितम को उन का करम कहें हम जफ़ा को मेहर-ओ-वफ़ा कहें हम

सितम को उन का करम कहें हम जफ़ा को मेहर-ओ-वफ़ा कहें हम

ज़माना इस बात पर ब-ज़िद है कि नारवा को रवा कहें हम

कुछ ऐसा सौदा है सब के सर में मिज़ाज बिगड़े हुए हैं सब के

कोई भी सुनता नहीं किसी की कहें किसी से तो क्या कहें हम

ये सारी बातें हैं दर-हक़ीक़त हमारे अख़्लाक़ के मुनाफ़ी

सुनें बुराई न हम किसी की न ख़ुद किसी को बुरा कहें हम

न जाने हम से है क्या तवक़्क़ो? नहीं किसी तरह जान-बख़्शी

ज़माना इस पे भी मो'तरिज़ है अगर ख़ुदा को ख़ुदा कहें हम

हमारी आहें भी बे-असर हैं हमारे नाले भी ना-रसा हैं

वो दर्द जिस का न हो मुदावा उसे न क्यूँ ला-दवा कहें हम

न दिन को है कुछ सुकूँ मयस्सर न शब को आती है नींद हम को

यही मोहब्बत की इब्तिदा है तो फिर किसे इंतिहा कहें हम

यही तक़ाज़ा है मस्लहत का इसी में है आफ़ियत भी 'आतिश'

किसी से दिल को जो रंज पहुँचे उसे ख़ुदा की रज़ा कहें हम

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