लाख पर्दों में गो निहाँ हम थे
लाख पर्दों में गो निहाँ हम थे
फिर भी हर चीज़ से अयाँ हम थे
एक आलम के तर्जुमाँ हम थे
उन के आगे ही बे-ज़बाँ हम थे
हम ही हम थे वहाँ जहाँ हम थे
आप आए तो फिर कहाँ हम थे
हर रग-ओ-पै में बर्क़ रक़्साँ थी
हाए वो वक़्त जब जवाँ हम थे
आज तो ख़ैर से हैं अर्श-मक़ाम
कल ज़मीं पर भी आसमाँ हम थे
ग़म के मारों को नाज़ था हम पर
जज़्बा-ए-ग़म के तर्जुमाँ हम थे
हर क़दम पे थी सामने मंज़िल
सू-ए-मंज़िल रवाँ-दवाँ हम थे
ज़िंदगी भर जो लब पे आ न सकी
दर्द-ओ-ग़म की वो दास्ताँ हम थे
दोस्तों का तो ज़िक्र क्या 'आतिश'
दुश्मनों पर भी मेहरबाँ हम थे
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