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आप की हस्ती में ही मस्तूर हो जाता हूँ मैं - अातिश बहावलपुरी कविता - Darsaal

आप की हस्ती में ही मस्तूर हो जाता हूँ मैं

आप की हस्ती में ही मस्तूर हो जाता हूँ मैं

जब क़रीब आते हो ख़ुद से दूर हो जाता हूँ मैं

दार पर चढ़ कर कभी मंसूर हो जाता हूँ मैं

तूर पर जा कर कलीम-ए-तूर हो जाता हूँ मैं

यूँ किसी से अपने ग़म की दास्ताँ कहता नहीं

पूछते हैं वो तो फिर मजबूर हो जाता हूँ मैं

अपनी फ़ितरत क्या कहूँ अपनी तबीअत क्या कहूँ?

दूसरों के ग़म में भी रंजूर हो जाता हूँ मैं

मुझ को 'आतिश' बादा-ओ-साग़र से हो क्या वास्ता?

उन की आँखें देख कर मख़मूर हो जाता हूँ मैं

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