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रहज़नों के हाथ सारा इंतिज़ाम आया तो क्या - आतिफ़ वहीद 'यासिर' कविता - Darsaal

रहज़नों के हाथ सारा इंतिज़ाम आया तो क्या

रहज़नों के हाथ सारा इंतिज़ाम आया तो क्या

फिर वफ़ा के मुजरिमों में मेरा नाम आया तो क्या

मेरे क़ातिल तुझ को आख़िर कौन समझाए ये बात

पर-शिकस्ता हो के कोई ज़ेर-ए-दाम आया तो क्या

फिर वो बुलवाया गया है कर्बला-ए-अस्र में

कूफ़ियों को फिर से शौक़-ए-एहतिमाम आया तो क्या

खो चुकी सारी बसीरत सो चुके अहल-ए-किताब

आसमानों से कोई ताज़ा पयाम आया तो क्या

जब कि उन आँखों की मशअल बाम पर रौशन नहीं

शहर में यासिर कोई माह-ए-तमाम आया तो क्या

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