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बहार-ए-ज़ख़्म-ए-लब-ए-आतिशीं हुई मुझ से - आतिफ़ कमाल राना कविता - Darsaal

बहार-ए-ज़ख़्म-ए-लब-ए-आतिशीं हुई मुझ से

बहार-ए-ज़ख़्म-ए-लब-ए-आतिशीं हुई मुझ से

कहानी और असर-आफ़रीं हुई मुझ से

मैं इक सितारा उछाला तो नूर फैल गया

शब-ए-फ़िराक़ यूँही दिल-नशीं हुई मुझ से

गुलाब था कि महकने लगा मुझे छू कर

कलाई थी कि बहुत मरमरीं हुई मुझ से

बग़ल से साँप निकाले तो हो गया बदनाम

ख़राब अच्छी तरह आस्तीं हुई मुझ से

कहाँ से आई है ख़ुश्बू मुझे भी हैरत है

ये रात कैसे गुल-ए-यासमीं हुई मुझ से

मैं अपने फूल खिलाए हैं उस की झाड़ी पर

क़बा-ए-यार बहुत रेशमीं हुई मुझ से

बस एक बोसा दिया था किसी के माथे पर

तमाम-शहर की रौशन जबीं हुई मुझ से

ग़ज़ल सुनी तो बहुत दिल से ख़ुश हुआ 'आतिफ़'

मगर ग़ज़ल की सताइश नहीं हुई मुझ से

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