क़ैद से पहले भी आज़ादी मिरी ख़तरे में थी
क़ैद से पहले भी आज़ादी मिरी ख़तरे में थी
आशियाना ही मिरा सूरत-नुमा-ए-दाम था
वाहिमा ख़ल्लाक़ और आज़ादी हुस्न-अफ़ज़ा सुरूर
हर फ़रेब-रंग का पहले गुलिस्ताँ नाम था
ज़ोफ़ आहों पर भी ग़ालिब हो चला था ऐ अजल
तू न आती तो ये मेरा आख़िरी पैग़ाम था
दीदा-ए-ख़ूँ-नाबा-अफ़्शाँ मेरा उन के सामने
बे-ख़ुदी के हाथ से छूटा हुआ इक जाम था
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