मंज़िल पे ले के पहुँचेगा अज़्म-ए-जवाँ मुझे
मंज़िल पे ले के पहुँचेगा अज़्म-ए-जवाँ मुझे
कह दो न साथ ले के चले कारवाँ मुझे
सुनता हूँ फिर चमन में हुई ख़ेमा-ज़न बहार
आए न क्यूँ क़फ़स में भी याद आशियाँ मुझे
खोया हुआ हूँ उन के तसव्वुर में इस तरह
जैसे सुनाए उन की कोई दास्ताँ मुझे
ये जब भी आई लाई नवेद-ए-बहार भी
फिर क्यूँ बहार से न हो प्यारी ख़िज़ाँ मुझे
मैं हो गया हूँ कब से नशेमन से बे-नियाज़
कह दे कोई डराए न बर्क़-ए-तपाँ मुझे
इक वक़्त था चमन के लिए मर मिटे थे हम
रहने उसी चमन में न दे बाग़बाँ मुझे
(1416) Peoples Rate This