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मंज़िल पे ले के पहुँचेगा अज़्म-ए-जवाँ मुझे - आसी रामनगरी कविता - Darsaal

मंज़िल पे ले के पहुँचेगा अज़्म-ए-जवाँ मुझे

मंज़िल पे ले के पहुँचेगा अज़्म-ए-जवाँ मुझे

कह दो न साथ ले के चले कारवाँ मुझे

सुनता हूँ फिर चमन में हुई ख़ेमा-ज़न बहार

आए न क्यूँ क़फ़स में भी याद आशियाँ मुझे

खोया हुआ हूँ उन के तसव्वुर में इस तरह

जैसे सुनाए उन की कोई दास्ताँ मुझे

ये जब भी आई लाई नवेद-ए-बहार भी

फिर क्यूँ बहार से न हो प्यारी ख़िज़ाँ मुझे

मैं हो गया हूँ कब से नशेमन से बे-नियाज़

कह दे कोई डराए न बर्क़-ए-तपाँ मुझे

इक वक़्त था चमन के लिए मर मिटे थे हम

रहने उसी चमन में न दे बाग़बाँ मुझे

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