क्या मसर्रत है पूछिए हम से
क्या मसर्रत है पूछिए हम से
है इबारत हर इक ख़ुशी ग़म से
अरक़-आलूद आप का चेहरा
हो धुला फूल जैसे शबनम से
ज़ब्त-ए-गिर्या से राज़-ए-ग़म था छुपा
खुल गया आज चश्म-ए-पुर-नम से
दर्द-ए-दिल का नहीं कोई दरमाँ
ज़ख़्म क्या मुंदमिल हो मरहम से
दर-हक़ीक़त क़रीब रहते हैं
वो ब-ज़ाहिर ही दूर हैं हम से
जब अज़ल से ख़ता ज़मीर में है
क्यूँ ख़ता हो न इब्न-ए-आदम से
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