ग़म को सबात है न ख़ुशी को क़रार है

ग़म को सबात है न ख़ुशी को क़रार है

जो कल था ख़ंदा-रेज़ वो आज अश्क-बार है

कहती है ओस फूल से ओ बे-ख़ुद-ए-नशात

रू-ए-ख़िज़ाँ भी ज़ेर-ए-हिजाब-ए-बहार है

जब तक जली जला की हवा आई बुझ गई

ये ज़िंदगी भी शम-ए-सर-ए-रह-गुज़ार है

जिस का नफ़स की आमद-ओ-शुद पर मदार हो

ऐसी हयात का भी कोई ए'तिबार है

इक मैं ही बद-नसीब हूँ महरूम-ए-इम्बिसात

दुनिया के लब पे ज़िक्र बहारों का रहे

अपनी बहार वक़्फ़-ए-ख़िज़ाँ हो चुकी तो हो

हर-सू जो शोर-ए-आमद-ए-फ़स्ल-ए-बहार है

'आसी' तरब-कदा था कभी ये दिल-ए-हज़ीं

ऐ वाए आज हसरत-ओ-ग़म का मज़ार है

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