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असीरान-ए-क़फ़स ऐसा तो हो तर्ज़-ए-फ़ुग़ाँ अपना - आसी रामनगरी कविता - Darsaal

असीरान-ए-क़फ़स ऐसा तो हो तर्ज़-ए-फ़ुग़ाँ अपना

असीरान-ए-क़फ़स ऐसा तो हो तर्ज़-ए-फ़ुग़ाँ अपना

कि हो सय्याद ख़ुद भी रफ़्ता रफ़्ता हम-ज़बाँ अपना

किए जा काम हाँ ऐ गर्दिश-ए-दौर-ए-ज़माँ अपना

हमें भी देखना है कैसे मिटता है निशाँ अपना

अदू हैं बिजलियाँ अपनी न दुश्मन आसमाँ अपना

हमें ख़ुद अपने हाथों फूँकते हैं आशियाँ अपना

न खो दे सुस्त-गामी हम को बाज़ी-गाह‌‌‌‌-ए-हस्ती में

न गर्द-ए-कारवाँ रह जाए बन कर कारवाँ अपना

चमन के पत्ते पत्ते पर हैं यारब बिजलियाँ क़ाबिज़

कहाँ ले जाएँ मुर्ग़ान-ए-चमन अब आशियाँ अपना

उरूस-ए-मंज़िल-ए-मक़्सूद मिल ही जाएगी इक दिन

यूँही चंदे रहा गरजा वो पैमा कारवाँ अपना

जला दें हम क़फ़स की तितलियाँ शो'ला-नवाई से

हर इक मुर्ग़-ए-चमन 'आसी' अगर हो हम-ज़बाँ अपना

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