रुमूज़-ए-मस्लहत को ज़ेहन पर तारी नहीं करता

रुमूज़-ए-मस्लहत को ज़ेहन पर तारी नहीं करता

ज़मीर-ए-आदमिय्यत से मैं ग़द्दारी नहीं करता

क़लम शाख़-ए-सदाक़त है ज़बाँ बर्ग-ए-अमानत है

जो दिल में है वो कहता हूँ अदाकारी नहीं करता

मैं आख़िर आदमी हूँ कोई लग़्ज़िश हो ही जाती है

मगर इक वस्फ़ है मुझ में दिल-आज़ारी नहीं करता

मैं दामान-ए-नज़र में किस लिए सारा चमन भर लूँ

मिरा ज़ौक़-ए-तमाशा बार-बरदारी नहीं करता

मुकाफ़ात-ए-अमल ख़ुद रास्ता तज्वीज़ करती है

ख़ुदा क़ौमों पे अपना फ़ैसला जारी नहीं करता

मिरे बच्चे तुझे इतना तवक्कुल रास आ जाए

कि सर पर इम्तिहाँ है और तय्यारी नहीं करता

मैं 'आसी' हुस्न की आईना-दारी ख़ूब करता हूँ

मगर मैं हुस्न की आईना-बरदारी नहीं करता

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