उस पे क्या गुज़रेगी वक़्त मर्ग अंदाज़ा लगा
उस पे क्या गुज़रेगी वक़्त मर्ग अंदाज़ा लगा
मुंतशिर हस्ती का अपनी जिस को शीराज़ा लगा
औलिया-अल्लाह की चौखट के भी आदाब हैं
सर उठा कर जो भी आया उस को दरवाज़ा लगा
नूर की चादर तनी है यूँ फ़ज़ा-ए-दहर पर
जैसे तारे तोड़ने को दस्त-ए-ख़म्याज़ा लगा
जाने किस अंदाज़ से उस शोख़ ने डाली नज़र
जो पुराना ज़ख़्म था वो भी हमें ताज़ा लगा
मय-कदे का एक ही दम में बदल जाए निज़ाम
सू-ए-मय-ख़ाना भी 'आसी' ऐसा आवाज़ा लगा
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