किसे बताते कि मंज़र निगाह में क्या था
किसे बताते कि मंज़र निगाह में क्या था
हर एक रंग में अपना ही बस तमाशा था
हम आज तक तो कोई इम्तियाज़ कर न सके
यहाँ तो जो भी मिला है वो तेरे जैसा था
अजीब ख़्वाब था ताबीर क्या हुई उस की
कि एक दरिया हवाओं के रुख़ पे बहता था
न कोई ज़ुल्म न हलचल न मसअला कोई
अभी की बात है मैं हादसे उगाता था
हर एक शख़्स ने अपने से मुंसलिक समझी
कोई कहानी किसी की किसी से कहता था
हमारा नाम था आशुफ़्ता-हाल लोगों में
ख़िज़ाँ-पसंद तबीअत का अपनी चर्चा था
(1633) Peoples Rate This