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हमें सफ़र की अज़िय्यत से फिर गुज़रना है - आशुफ़्ता चंगेज़ी कविता - Darsaal

हमें सफ़र की अज़िय्यत से फिर गुज़रना है

हमें सफ़र की अज़िय्यत से फिर गुज़रना है

तुम्हारे शहर में फ़िक्र ओ नज़र पे पहरा है

सज़ा के तौर पे मैं दोस्तों से मिलता हूँ

असर शिकस्त-पसंदी का मुझ पे गहरा है

वो एक लख़्त ख़लाओं में घूरते रहना

किसी तवील मसाफ़त का पेश-ख़ेमा है

ये और बात कि तुम भी यहाँ के शहरी हो

जो मैं ने तुम को सुनाया था मेरा क़िस्सा है

हम अपने शानों पे फिरते हैं क़त्ल-गाह लिए

ख़ुद अपने क़त्ल की साज़िश हमारा विर्सा है

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