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लहू लहू आरज़ू बदन का लिहाफ़ होगा - आनन्द सरूप अंजुम कविता - Darsaal

लहू लहू आरज़ू बदन का लिहाफ़ होगा

लहू लहू आरज़ू बदन का लिहाफ़ होगा

वो कितना बुज़दिल है आज ये इंकिशाफ़ होगा

मिरी हर इक बात थी हक़ाएक़ की रौशनी में

ये जानता था ज़माना मेरे ख़िलाफ़ होगा

हक़ीक़तों के चराग़ हर-सू जला के रखना

मुझे यक़ीं है कि झूट का इनएताफ़ होगा

ये ग़म नहीं है शनाख़्त अपनी मैं खो चुका हूँ

तुम्हारी हस्ती से कब मुझे इंहिराफ़ होगा

न खोज ख़ुद को पुराने कल की कहानियों में

पुराना कल तो शिकस्त का ए'तिराफ़ होगा

हमारी बातों में कोई पेचीदगी नहीं है

हमारी बातों से कब उसे इख़्तिलाफ़ होगा

रुमूज़-ए-आलम पे दस्तरस उस को होगी हासिल

वो शख़्स किरदार जिस का शफ़्फ़ाफ़-ओ-साफ़ होगा

सज़ा के डर से अबस तू घबरा रहा है 'अंजुम'

क़ुसूर पहला तो हर किसी को मुआ'फ़ होगा

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