आज़माइश में कटी कुछ इम्तिहानों में रही
आज़माइश में कटी कुछ इम्तिहानों में रही
ज़िंदगी किन रास्तों में किन ठिकानों में रही
वो तो इक हल्की सी दस्तक दे के रुख़्सत हो गया
इक सदा रस घोलती दिन-रात कानों में रही
लिख गई अपने घरों में एक कर्ब-ए-ना-तमाम
ज़िंदगी गोया हमारे मेहरबानों में रही
मिट गईं आँगन में सारी खेलती परछाइयाँ
एक बे-कैफ़ी मुसलसल आशियानों में रही
वो ज़मीं की सरहदों में ही रहा 'अंजुम' मुक़ीम
क्यूँ तलाश इंसान को फिर आसमानों में रही
(1566) Peoples Rate This