ज़रा सी चाय गिरी और दाग़ दाग़ वरक़
ये ज़िंदगी है कि अख़बार का तराशा है
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अदा है ख़्वाब है तस्कीन है तमाशा है
सलोनी सर्दियों की नज़्म
कँवल जो वो कनार-ए-आबजू न हो
अब तुम को ही सावन का संदेसा नहीं बनना
मैं क्या करूँगा रह के इस जहान में