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सलोनी सर्दियों की नज़्म - आमिर सुहैल कविता - Darsaal

सलोनी सर्दियों की नज़्म

पुराने बूट हैं तस्मे खुले हैं

अभी मिट्टी के चेहरे अन-धुले हैं

शराबें और मश्कीज़ा सहर का

अभी है जिस्म पाकीज़ा गजर का

सुते चेहरे पे इस्तेहज़ा का मौसम

लहू नब्ज़ों से ख़ाली कर गया है

गले में मुल्क के तावीज़ डालो

बिदेसी बर्छियों से डर गया है

ग़ज़ल दालान में रक्खी है मैं ने

महक है संगतरे की क़ाश जैसी

ये कैसी मय है जो चक्खी है मैं ने

मुझे उश्शाक़ ये कहते हैं 'आमिर'

बहुत तन्हा सिसकते दहर में हो!

बड़े शाएर हो छोटे शहर में हो

फ़रेब-ए-अस्र से मदहोश कमरा

निगोड़ी तितलियों से भर गया है

समुंदर पिंडुलियों तक आते आते

किसी पत्थर की सिल पर मर गया है

सलोनी सर्दियों से झाँकते हैं

वो अबरू कश्तियों को हाँकते हैं

सिलेटी बादलों का ये सहीफ़ा

मिरी मुट्ठी में पढ़ता है वज़ीफ़ा

मैं रोता हूँ तो रो पड़ते हैं ताइर

मिरे हुजरे में कम आते हैं ज़ाएर

ये पोरें नूर-बाफ़ी कर रही हैं

मोहब्बत को ग़िलाफ़ी कर रही हैं

तफ़ाख़ुर में है दो होंटों का ख़म भी

अभी रक्खा नहीं मैं ने क़लम भी

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