कँवल जो वो कनार-ए-आबजू न हो
कँवल जो वो कनार-ए-आबजू न हो
किसी भी अप्सरा से गुफ़्तुगू न हो
क़ज़ा हुआ है एक जिस्म-ए-बे-तरह
कहीं हमारी आँख बे-वज़ू न हो
हथेलियों में भर के बात तो करें
चराग़ को मुकालमे की ख़ू न हो
दमक रहा है केसरी हिजाब से
इस आईने में कोई हू-ब-हू न हो
मैं क्या करूँगा रह के इस जहान में
जहाँ पे एक ख़्वाब की नुमू न हो
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