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अब तुम को ही सावन का संदेसा नहीं बनना - आमिर सुहैल कविता - Darsaal

अब तुम को ही सावन का संदेसा नहीं बनना

अब तुम को ही सावन का संदेसा नहीं बनना

मुझ को भी किसी और का रस्ता नहीं बनना

कहती है कि आँखों से समुंदर को निकालो

हँसती है कि तुम से तो किनारा नहीं बनना

मोहतात है इतनी कि कभी ख़त नहीं लिखती

कहती है मुझे औरों के जैसा नहीं बनना

तस्वीर बनाऊँ तो बिगड़ जाती है मुझ से

ऐसा नहीं बनना मुझे वैसा नहीं बनना

इस तरह के लब कौन तराशेगा दोबारा

इस तरह का चेहरा तो किसी का नहीं बनना

चेहरे पे किसी और की पलकें नहीं झुकती

आँखों में किसी और का नक़्शा नहीं बनना

मैं सोच रहा हूँ कि मैं हूँ भी कि नहीं हूँ

तुम ज़िद पे अड़ी हो कि किसी का नहीं बनना

मैं रात की ईंटें तो बहुत जोड़ रहा हूँ

पर मुझ से तेरे दिन का दरीचा नहीं बनना

इंकार तो यूँ करती है जैसे कि कभी भी

छाँव नहीं बनना उसे साया नहीं बनना

इस दर्द की तहवील में रहते हुए हम को

चुप-चाप बिखरना है तमाशा नहीं बनना

उस ने मुझे रखना ही नहीं आँखों में 'आमिर'

और मुझ से कोई और ठिकाना नहीं बनना

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